हम सब अपने विद्यालय के दिनों से ही सुनते आ रहे हैं कि भारत का संविधान दुनिया का सबसे विस्तृत और सुन्दर संविधान है. हमने विस्तृत शब्द पर हमेशा ही ध्यान दिया है इसलिए इसका जवाब भी लगभग हम सभी के पास है. लेकिन क्या हम सबने सुन्दरता शब्द पर भी उतना ही ध्यान दिया है? शायद नहीं, कुछ लोगों ने शायद ध्यान दिया भी होगा और उनमें से कुछ लोगों ने इसका उत्तर भी जानने की कोशिश की होगी. हमारी इस कोशिश का आखिर परिणाम क्या निकला? क्या सिर्फ इतना ही कि इसमें हर वर्ग को समाहित किया गया है? या सिर्फ इतना ही कि यह बहुत लचीला है? इसके अतिरिक्त भी हम में से कई लोगों के और भी सवाल और ज़वाब अवश्य होंगे.
लेकिन भारतीय संविधान की सुन्दरता इन सबके अतिरिक्त कुछ और भी हैं जो शायद सबसे अलग और महत्वपूर्ण हैं, वह हैं इसमें सैन्य तख्तापलट की गुंजाइश को बिल्कुल समाप्त करना, क्षेत्रीय गुटों को ना पनपने देना और इसका कभी भी खारिज ना होना या इसके अतिरिक्त दूसरा संविधान लागू करना. ये विचार करने योग्य बात है कि उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक फैले इतने बड़े भू-भाग में, जब आज के समय में इतनी विषमताएं और मतभेद हैं तो 1947 में स्थिति क्या रही होगी?
देशी रियासतों के एकीकरण के अलावा भी राज्य अपनी - अपनी पहचान को लेकर संघर्षरत थे. इसके अलावा पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान से शरणार्थियों का पलायन, सरकारी विभागों के मुसलमानों की विश्वसनीयता, भाषा पर टकराव, नागाओं की समस्या, लोगों के रोजगार की समस्या, लोकतंत्र को बनाये रखने तथा विश्व में खुद को स्थापित करने की चुनौती आदि. ऐसे समय में संविधान का निर्माण निश्चित ही चुनौतीपूर्ण रहा होगा.
अगर हम दुनिया के अलग-अलग देशों के संवैधानिक विकास को देखें, तो पाएंगे कि लगभग हर देश में लागू संविधान को खारिज करके एक अलग संविधान को लाया गया है. कई देशों में यह प्रक्रिया 5-5 संविधान तक भी पहुंची है. तो एक नजर दुनिया के ईन सो - कॉल्ड महान और ताकतवर देशों के संवैधानिक विकास पर -
अमेरिका :- यहां 1789 को ही पहला और एकमात्र संविधान लागू हुआ और दूसरे संविधान की आवश्यकता महसूस नहीं हुई. लेकिन मूल संविधान में दासों, महिलाओं और अश्वेतों को दोयम दर्जे का माना गया. और उन्हें मतदान जैसे मूल अधिकार भी प्राप्त नहीं थे. इसके अलावा भी अमेरिका 1861 में ग्रहयुद्ध का दंश भी झेल चुका है.
रूस :- दुनिया को क्रांति की नई परिभाषा समझाने वाले देश में भी 1906(आंशिक), 1924,1936 में लागू हुये 3 संविधान के खारिज होने के बाद 1977 में नवीनतम संविधान लागू हुआ.
ब्रिटेन :- दुनिया के सबसे बड़े भू-भाग को गुलाम बनाने वाले देश ने 1688 की रक्तहीन क्रांति के बाद एक निश्चित दस्तावेज को बनाना आवश्यक नहीं समझा और परंपराओं को आगे बढ़ाते हुए ही देश की संवैधानिक व्यवस्था जारी रखी.
फ्रांस :- दुनिया की बड़ी औपनिवेशिक शक्तियों में शामिल फ्रांस भी अपनी संवैधानिक व्यवस्था को बरकरार नहीं रख सका. और 1791 से लेकर 1958 तक कुल 14 संविधान (5 गणतंत्रात्मक) बदल चुके थे. 1958 में लागू संविधान द्वारा देश की कानूनी व्यवस्था चल रही है.
चीन :- भारत से 2 साल बाद आजाद हुआ और वर्तमान में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला मुल्क भी अपने देशवासियों के लिए एक प्रभावशाली और मजबूत संविधान बनाने में असफल रहा. 1954 में लागू पहले संविधान को बदलकर 1975 और 1978 में लागू किए गए संविधान भी नकार दिए गए. वर्तमान संविधान 1982 में लागू हुआ था.
स्पेन :- इस सूची में स्पेन को शामिल करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि फ्रांस और ब्रिटेन की तरह स्पेन भी एक बङा औपनिवेशिक राष्ट्र रहा है. 1812 में अपने पहले संविधान की स्थापना करने वाला मुल्क 1978 तक लगातार संवैधानिक अस्थिरता से जूझता रहा. जिसमें 1873,1931 के महत्वपूर्ण संविधान भी शामिल हैं. अन्ततः 1978 में एक स्थिर संविधान की स्थापना हुई.
जापान :- द्वितीय विश्व युद्ध और उससे पहले के ताकतवर मुल्कों में शामिल जापान भी अपने एक ही संविधान (1890) के दायरे में नहीं रह सका और उसे 1947 में एक नए संविधान को अस्तित्व में लाना पड़ा.
पाकिस्तान :- भारत के साथ आजाद हुए मुल्क पाकिस्तान ने आजादी के 9 साल बाद अपना संविधान लागू किया. लेकिन वहां व्याप्त सैन्य शासन और राजनीतिक अस्थिरता ने पहले 1956 और फिर 1962 के संविधान को पूरी तरह हटा 1972 में एक नया संविधान लागू किया. जो आज भी कार्यरत है.
अफ्रीका महाद्वीप :- अफ्रीका महाद्वीप के लगभग सभी देश हमेशा से ही सैन्य शासन या राजनीतिक अस्थिरता के शिकार रहे हैं. वहाँ लगभग सभी देशों में एक निश्चित अन्तराल के बाद संविधान अवश्य परिवर्तित हो जाता है. और यह प्रकिया 2021 में भी जारी है. वहाँ कुछ गिने चुने ही देश बोत्सवाना, मॉरिशस, सेशेल्स और नामीबिया आदि ही राजनीतिक तौर पर स्थिर हैं.
भारतीय उपमहाद्वीप :- चीन और पाकिस्तान के अलावा भारत के आस-पड़ोस के देशों की स्थिति देखें तो वहाँ भी कभी एक ही संविधान लागू नहीं रहा है. श्रीलंका, म्यांमार, अफगानिस्तान और नेपाल आदि देशों में भी कभी सैन्य शासन तो कभी ग्रहयुद्ध या संवैधानिक अस्थिरता हमेशा बरकरार रही है.
इन सभी बड़े और छोटे देशों की स्थिति देखकर सहज ही यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि हमारी संवैधानिक समिति में कितने विद्वान और दूर दृष्टी वाले महापुरुष थे. सभी महत्त्वपूर्ण नामों को हम सब जानते हैं,लेकिन उन गुमनाम विद्वानों का भी इस महान संविधान के निर्माण में कम योगदान नहीं है. प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु और व्यवस्था में कमियाँ अवश्य होती हैं, लेकिन हमें अपने संविधान की आलोचना करने से पूर्व इन तथ्यों को अवश्य जानना चाहिए.
(स्रोत - इन्टरनेट)
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