स्कूल के दिनों में जब भी हमारे आदर्शों के बारे में अध्यापक पूछते, तो नेता जी सुभाषचंद्र बोस का नाम अवश्य ही जेहन में आ जाता था। और आना लाजिमी भी है, क्योंकि सुभाषचंद्र बोस भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी थे। हम सभी विचारधाराओं से दूर स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में बड़े गौर से पढ़ते। तब हम नहीं जानते थे कि कुछ ऐसी भी विचारधारा होती होगी जो महापुरुषों को भी बाँट लेती है। जब विचारधारा का ज्ञान आया तो देखा कि से सरदार पटेल, भगत सिंह, जवाहरलाल नेहरू और अंबेडकर आदि सभी की तरह ही नेता जी सुभाष चंद्र बोस भी नेताओं और उनकी नेता गिरी के देर में फंसे चुके हैं। वामपंथ, दक्षिणपंथ और दूसरी सभी विचारधाराओं के लोग उन्हें अपनी सहूलियत और वोट बैंक के हिसाब से अपने-अपने पाले में खींचने की कोशिश में लगे रहते हैं। किसी ने उनके त्याग, देशभक्ति और शिक्षाओं को पढ़ने या समझने की कोशिश भी नहीं की। जिसमें नेताओं के साथ साथ आम लोगों की भी अच्छी-खासी तादाद है।
वर्तमान में सोशल मीडिया के माध्यम से आम लोगों ने नेताजी और उनके प्रेरणास्रोत महात्मा गांधी को भी आमने-सामने रख दिया है। यदि आप गांधी को मानते हैं तो नेता जी को नहीं मान सकते और अगर नेता जी मानते हैं तो गांधी नहीं मान सकते। महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस के उस आत्मीय संबंध को भुला दिया गया है जिसके अनुसार गांधी जी को 'महात्मा' सबसे पहले नेता जी सुभाष बाबू ने ही कहा था। नेता जी की उस राजनीतिक शुरुआत को भी भुला दिया गया है जिसमें महात्मा गांधी से प्रेरणा लेकर सुभाष बाबू स्वतंत्रता के आंदोलन में कूद पड़े और जीवन पर्यंत उससे जुड़े रहे। महज 21 वर्ष की आयु में सिविल सर्विस परीक्षा पास करने के बाद उनका मन नौकरी में नहीं लगा। वे गांधी से इतने प्रभावित हुये की नौकरी छोड़कर गांधी जी से मिले। गांधी ने उन्हें देशबंधु चितरंजन दास से मिलवाया और वे चितरंजन दास के शिष्य बन गए।
अपनी युवावस्था में सुभाष बाबू ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी जॉइन की और उसके एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में काम करने लगे। उनकी सोच का प्रवाह वामपंथ और गरम दल की तरफ भी हो गया था। सुभाष की कम्युनिस्ट विचारधारा कॉंग्रेस के कई बड़े नेताओं को नहीं भाती थी। जिसमें सबसे बड़ा नाम महात्मा गांधी का है। धीरे-धीरे गांधी और नेताजी में मतभेद बढ़ते गये। बावजूद इसके उनमें मनभेद कभी नहीं हुआ। 1938 में सुभाष बाबू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए चूंकि वे देश गरम दल से जुड़े थे इसलिये उनको अध्यक्ष पद से बर्खास्त करने की मांग हमेशा चलती रही। लेकिन नेताजी ने इस्तीफा देना मुनासिब नहीं समझा। 1939 में दोबारा अध्यक्ष बन जाने के बाद उनके खिलाफ विरोध के स्वर और ज्यादा मुखर हो गए जिसके कारण अंततः उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। विरोध करने वालों में गांधी भी शामिल थे। उन्होंने गांधी जी सविनय अवज्ञा आंदोलन और दूसरे आंदोलनों में भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया, जिसके कारण कई बार जेल भी गए।
वे अंग्रेजों को पूरी तरह से देश से निकालने के पक्षधर थे। इसलिए जब उन्हें महसूस हुआ कि वे शायद देश के भीतर रहकर यह काम नहीं कर पाएंगे तो उन्होंने विदेश से यह काम करने की ठानी। इसी क्रम में वे पहले जर्मनी पहुंचे फिर वहां से जापान होते हुए सिंगापुर भी गए। इसके अलावा भी उन्होंने यूरोप और एशिया के कई देशों की यात्रा की। वे देश से बाहर रखकर गांधी जी के आंदोलन को और मजबूती दे रहे थे। 1944 में उन्होंने जर्मनी से रेडियो पर सबसे गांधी को सबसे पहले महात्मा कहा।
नेताजी और गांधी जी की विचारधारा अलग अलग होने के बाद भी उनके विचार बहुत मेल खाते थे। वे अहिंसा के प्रबल समर्थक थे लेकिन तबतक ही जबतक हिंसा की नौबत ना आए। वे भारत को एक समाजवादी गणतांत्रिक राष्ट्र बनाने के समर्थक थे। वे अंग्रेजो को देश से निकाल एक ऐसे भारत का सपना देखते थे जहां कोई आम नागरिक हथियार ना उठाए। लेकिन वे सेना को मजबूत करने के भी पक्षधर थे। वे भारत में रूढ़िवाद को तोड़कर महिलाओं और शोषित वर्ग को समाज और देश की मुख्य धारा में लाना चाहते थे। इसलिये उन्होंने नारा दिया जयहिंद।
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