जातीय संघर्ष में उलझा बच्चों का भविष्य 


एक दिन बैठे बैठे इन्टरनेट पर सर्च किया कि यूपी के कितने गांवों में एक भी सरकारी विद्यालय का भवन नहीं है. तो मुश्किल से आंकड़ा मिला के पूरे उत्तर प्रदेश में दो-तीन गांवों में सरकारी विद्यालय की कोई इमारत नहीं है.  जिसमें एक मेरा गाँव निचावड़ी भी है. जालौन जिले की माधौगढ़ तहसील में पड़ने वाले इस गाँव की कुल आबादी 250 के आसपास है. चूंकि यह खुद में ग्राम पंचायत नहीं है तो यह कुटरा ग्राम पंचायत के अंतर्गत आता है. 

  गाँव में अस्थायी स्कूल के रूप में भगवान शंकर का मंदिर है. जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे महारानी लक्ष्मी बाई के समय बनवाया गया था. तो इसी मंदिर के बरामदे में विद्या के मंदिर का स्टेज सजता है, और बच्चे घंटे-घडियालों के बीच गिनती, वर्णमाला और पहाड़ा याद करने की कोशिश करते हैं. स्कूल में शौचालय के नाम पर मंदिर के पड़ोसी का घर है. अगर पड़ोसी के घर जाने में संकोच है तो बीच कक्षा से उठकर अपने घर या खेत जाकर शौच या लघुशंका  करके वापस विद्यालय में लौटने का विकल्प बच्चों के पास मौजूद होता है. 

2002-03 में शुरू हुए इस स्कूल में वर्तमान में कागजों पर 40 बच्चों का दाखिला है. लेकिन मुश्किल से 15-20 बच्चे ही स्कूल आते हैं. इसमें भी शर्त ये है कि शिक्षक को उन्हें बुलाने घर जाना पड़ता है. कक्षा 5 तक इन बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी तीन अध्यापकों और एक आंगनबाड़ी कार्यकत्री के ऊपर है. जो खुद बच्चों को ऐसे हालात में पढ़ाने को मजबूर हैं. 

   मंदिर का प्लास्टर काफी समय से गिर रहा है, तो अध्यापक बच्चों को यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ बैठा देते हैं. चूँकि विद्यालय की इमारत सरकारी नहीं है तो अध्यापक उसकी शिकायत भी नहीं कर सकते हैं. बच्चे कभी मंदिर के एक हिस्से में बैठते हैं तो कभी दूसरे. 

   मिड डे मील बनने में इस्तेमाल होने वाले बर्तन और राशन यहाँ वहाँ शिफ्ट होता रहता है. 

  विद्यालय ना बनने का सबसे बड़ा कारण गाँव में दो जातियों के बीच छिड़ी वर्चस्व की लड़ाई है. लड़ाई छेड़ने वाले भले ही अपने बच्चों को पास के कस्बे में पढ़ा लें वो अलग बात है. लेकिन इनकी आपसी लड़ाई में गरीब बच्चे अच्छी शिक्षा को मोहताज हैं.

  2006 में स्कूल के लिए जमीन आवंटित कर दी गयी, लेकिन कुछ वजहों से निर्माण कार्य में देरी हो गयी. इसी बीच दूसरी जाति के लोगों ने अपने खेत में स्कूल का निर्माण कार्य भी शुरू कर दिया. लेकिन गलती से वे जमीन का बैनामा करना भूल गए. इसी बीच दूसरी जाति के लोग हाई कोर्ट चले गये और निर्माण कार्य पर रोकलगवा दिया. तब से यह मामला हाई कोर्ट में लंबित है. जिस पर कोई चाहते हुये भी बात नहीं करता है. शासन, कोर्ट की कह कर मामले से पाला झाड़ लेता. 

  शिक्षा व्यवस्था का यह हाल आजादी के 75 वर्ष पूरा करने जा रहे भारत पर एक धब्बे की तरह है. जहाँ एक ओर नए भारत के निर्माण पर खूब चर्चा हो रही है, उसी भारत में एक गाँव के बच्चे मंदिर में सिर्फ भारत को जानने की कोशिश कर रहे हैं. उस विद्यालय को लेकर बात यहां तक चल रही है कि इसे बंद कर दिया जाए. 

  स्कूल के शिक्षक सरकारी नौकर होने की वजह से ज्यादा बात करने से बचते हैं. अगर खबर अखबार में प्रकाशित हो गयी तो उल्टा प्रशासन डांट के जाता है और कभी-कभी तो चढ़ौती भी चढ़ानी पड़ती है. तो वहीं बच्चे और स्कूल अपनी दुर्दशा पर आँसू बहाने को मजबूर हैं.

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